This is default featured slide 1 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 2 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 3 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 4 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 5 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

Wednesday, January 26, 2011

कांग्रेस बहुमत पाए बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का साहस नहीं कर सकती


रामबहादुर राय
जाने-माने पत्रकार 

संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार दोहरे संकट में फंसती जा रही है। पहला संकट तो कांग्रेस का अपना आंतरिक मामला है, उसकी अपनी कमजोरियां हैं। दूसरा संकट यह कि कांग्रेस घटक दलों को गठबंधन की मर्यादा में रख नहीं पा रही है। वर्ष 2009 में पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव के बाद यूपीए ने जो अपना रोडमैप तैयार किया था, वह अब काम नहीं कर रहा है। कांग्रेस और राहुल गांधी भी इस इरादे से काम कर रहे थे कि 2014 के चुनाव में कांग्रेस स्पष्ट बहुमत पाकर गठबंधन की मजबूरी से बाहर निकल आएगी। यह नहीं सोचा गया था कि कुछ ही महीनों में इतने घोटाले सामने आ जाएंगे कि प्रधानमंत्री की छवि दागदार हो जाएगी। घोटालों में भले सीधे प्रधानमंत्री पर आरोप न हों, लेकिन इतना सब लोग समझ रहे हैं कि प्रधानमंत्री मंत्रियों को बर्दाश्त कर रहे हैं और उन पर अंकुश लगाने में नाकाम हैं। इसलिए प्रधानमंत्री भी उतने ही गुनहगार हैं, जितना कि भ्रष्ट मंत्री हैं।
प्रधानमंत्री के अलावा यूपीए अध्यक्ष की छवि भी प्रभावित हुई है। आयकर अपीली पंचाट ने बोफोर्स प्रकरण में लगते आ रहे आरोपों की पुष्टि कर दी है। क्वात्रोची के बारे में नए प्रमाण आए हैं कि उसने दलाली ली। इसके भी प्रमाण आ गए हैं कि राजीव गांधी की हत्या के बाद भी सोनिया गांधी की मुलाकात क्वात्रोची से होती रही। इन खुलासों से यूपीए अध्यक्ष और कांग्रेस की नैतिक और राजनीतिक शक्ति कमजोर पड़ी है। नेतृत्व पर प्रश्नचिन्ह लग गया है और इसका असर घटक दलों पर भी दिखाई दे रहा है। घटक दल अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस को आंख तरेर रहे हैं। दो दिन पहले ही महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहाण ने कहा कि "कांग्रेस को अपने स्तर पर इतना मजबूत होना चाहिए कि हमको गठबंधन की जरूरत नहीं रहे।" इस पर एनसीपी के प्रमुख व कृषि मंत्री शरद पवार ने तीखी प्रतिक्रिया करते हुए कहा, "अगर कांग्रेस मुंबई में होने वाले निकाय चुनाव अपने स्तर पर लड़ना चाहती है, उनकी पार्टी भी अकेले जाने को तैयार है।"

उधर, राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में एक सवाल-जवाब में महंगाई पर गठबंधन की मजबूरी जताई, तो एनसीपी के दो महासचिवों ने उन्हें घेरा। देवी प्रसाद त्रिपाठी ने बयान देकर कहा कि "यह तो उद्दंडता है। उनको मालूम होना चाहिए कि इस समय दुनिया में 23 देशों में गठबंधन की सरकार चल रही है।" तारीक अनवर ने राहुल गांधी पर कटाक्ष किया, "बिहार से उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा, वे अपनी गलतियों से सीखने के लिए तैयार नहीं हैं।" तो गठबंधन में रहते हुए खुलेआम बयानबाजी इस बात की सूचक है कि गठबंधन के दल कांग्रेस की बात मानकर चलने वाले नहीं हैं। गठबंधन के दल अपने राजनीतिक हितों को वरीयता देते हैं और सामूहिक जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करते हैं।
जो बात महाराष्ट्र में दिखाई दे रही है, वही तमिलनाडु में है और वही पश्चिम बंगाल में भी। पश्चिम बंगाल मे ममता बनर्जी कांग्रेस नेतृत्व को धमकाकर जो चाहती हैं, मनवा लेती हैं और रेल मंत्रालय कायदे-कानून को तोड़कर पश्चिम बंगाल के चुनावों और तृणमूल कांग्रेस की राजनीति का हिस्सा बन गया है। इसके कई उदाहरण हैं, जैसे रेल की समितियों में केवल एक ही राज्य के लोग लिए गए हैं। रेलवे की हिन्दी सलाहकार समिति भी अब तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की समिति है। गठबंधन पर प्रधानमंत्री का अनुशासन कोई काम नहीं कर रहा है। अभी पिछले दिनों महंगाई पर एक बैठक हुई। प्रधानमंत्री ने पूछा था कि महंगाई पर हम क्यों नियंत्रण नहीं कर पा रहे हैं, तब शरद पवार और प्रणव मुखर्जी दोनों ही यह कहकर वहां से उठकर चल दिए कि इससे ज्यादा जरूरी काम हमारे पास हैं, इसलिए हम जा रहे हैं। द्रमुक का भी यही हाल है। बताया जाता है कि मनमोहन सिंह नहीं चाहते थे कि ए.राजा को मंत्री बनाएं, लेकिन द्रमुक के सुप्रीमो करूणानिधि ने तय किया कि संचार मंत्रालय ए.राजा को मिलना चाहिए।

आजकल फिर से चर्चा है कि मंत्रिमंडल में भारी फेरबदल होने जा रहा है। प्रधानमंत्री चाहते हैं कि जिन मंत्रियों पर आरोप हैं, उन्हें हटाएं। मंत्रिमंडल के फेरबदल से जो चेहरे सामने आएंगे, उनसे यह पता चलेगा कि वास्तव में मनमोहन सिंह जैसा चाहते थे, वैसा कर पाए या नहीं। आशंका है, मनमोहन सिंह इतने लाचार हैं कि वह मंत्रिमंडल में ज्यादा फेरबदल नहीं कर पाएंगे। वह कांगे्रस के मंत्रियों के विभाग बदल देंगे, कुछ को हटा दिया जाएगा, राज्यपाल बनाने के लिए अलग कर दिया जाएगा, लेकिन घटक दलों के मंत्रियों में वह कोई फेरबदल कर सकेंगे, इसकी दूर-दूर तक संभावना नहीं है। खुद प्रधानमंत्री लाचार हैं। ये ऎसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें उनकी पार्टी के नेता, कार्यकर्ता, घटक दल, विपक्षी और यहां तक कि बड़ी संख्या में आम लोग भी प्रधानमंत्री नहीं मानते हैं, क्योंकि वह राजनीतिक प्रक्रिया से प्रधानमंत्री नहीं बने हैं। माना जाता है कि वह एक आज्ञाकारी व्यक्ति हैं, इसलिए प्रधानमंत्री पद पर बैठे हैं। पहले जो चीजें उनके पक्ष में जाती थीं, उनका बेदाग, ईमानदार होना, अब इस पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।

जिन राज्यों में कांग्रेस ताकतवर थी, वहीं उसकी शक्ति कमजोर पड़ने लगी है। सबसे बड़ी चुनौती उसे आंध्र प्रदेश में मिल रही है। जगनमोहन रेड्डी के समर्थन में विधायक, सांसद सामने आ रहे हैं और कह रहे हैं कि तेलंगाना नहीं बना, तो कांग्रेस से नाता तोड़ लेंगे। जगनमोहन की महत्वाकांक्षा को सोनिया गांधी संतुष्ट नहीं कर पा रही हैं। कांग्रेस को केन्द्र की सत्ता में पहुंचाने में आंध्र प्रदेश का बड़ा योगदान रहा, लेकिन लगता है, इस राज्य में कांग्रेस न तीन में रहने वाली है न तेरह मे।

बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में एक हवा थी कि अब बसपा और सपा को लोग पसंद नहीं कर रहे हैं और भाजपा को भी नहीं, लिहाजा विकल्प की पार्टी कांग्रेस है और राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस बहुमत की तरफ बढ़ रही है, लेकिन अयोध्या के फैसले और बिहार में पराजय ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पर वज्रपात कर दिया। लोग उत्तर प्रदेश में राहुल का स्वागत करते थे, लेकिन अब उनके बचकाने बयानों का विरोध करने लगे हैं। कुछ दिन पहले राहुल गांधी छात्रों के एक प्रतिनिधिमंडल को लेकर कपिल सिब्बल के पास गए थे और कहा था कि उत्तर प्रदेश में तीन केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव होने चाहिए। अभी 10 जनवरी को राहुल गांधी एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय गए, तो छात्र संघ चुनाव न होने से नाराज एनएसयूआई के लड़कों ने ही उनका विरोध कर दिया। स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश और बिहार में जब तक कांग्रेस अपने पैरो पर नहीं खड़ी होती और उसे वहां अधिक से अधिक सीटें जीतने का भरोसा नहीं होता, तब तक कांग्रेस लोकसभा में बहुमत का सपना नहीं देख सकती। कांग्रेस की दिक्कत यह है कि वह बहुमत पाए बिना राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का साहस नहीं कर सकती।

अभी यूपीए के साथ आठ बड़ी पार्टियां हैं और एनडीए के साथ छह पार्टियां। संसद में 37 पार्टियां हैं। जो पार्टियां यूपीए या एनडीए में नहीं हैं, उनका भी महत्व रहा है। पिछले वर्षो में सपा, बसपा, राजद, लोजपा, अन्नाद्रमुक, तेदेपा इत्यादि पार्टियां जरूरत पड़ने पर यूपीए के पक्ष मे जाती रही हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, अगर इस समय चुनाव होते हैं, तो कांग्रेस की सीटें घटेंगी, क्षेत्रीय पार्टियो की बढ़ेंगी। राष्ट्रीय पार्टियों का प्रभाव कम हो रहा है। एनडीए में भी भाजपा का प्रभाव कम हो रहा है। एनडीए की सीटें बढ़ रही हैं, लेकिन इतनी नहीं कि अपने दम पर सरकार बना ले। तो आज की स्थिति में गठबंधन एक स्थायी तत्व है, लेकिन कई बार कांग्रेस मानसिक रूप से गठबंधन के लिए तैयार नहीं दिखती है। गठबंधन का दौर इस देश में 1989 में शुरू हुआ, लेकिन 1998 तक कांग्रेस फैसला ही नहीं कर पाई कि गठबंधन में शामिल होना है या नहीं। अंतत: मजबूरी में कांग्रेस ने 2003 में फैसला किया कि वह गठबंधन करेगी। मैं यह समझता हूं कि कांग्रेस को आज की परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाने के लिए तैयार रहना होगा। यह दौर गठबंधन का है, इसलिए गठबंधन के हिसाब से ही उसके नेतृत्व को बयान देना होगा या कामकाज करना होगा। साथ ही, नैतिक व राजनीतिक रूप से अपनी प्रतिष्ठा बनानी होगी, तभी शायद यूपीए संकट से निकल पाएगा।