अगर देश में घी, नून, तेल, आटा, दाल, चावल, कपड़ा, घर और घर के कर्ज़ के दाम आसमसाम छू रहे तो कांग्रेसियों का भला क्या दोष। क्या सहयोगी भी उतने दोषी नहीं। यही सिम्पल सा सवाल तो राहुल गांधी ने भी पूछा था। कृषि और खाद्द आपूर्ति मंत्री शरद पवार की एनसीपी को न जानें क्यों माख लग गई। कैसे राहुल के बयान को तोड़-मरोड़ कर छोटी लाइन के ज़रिये इटली पहुंचा दिया। अरे देश की समस्या देश में ही सुलटा ली जाती। इटली भेजने की क्या ज़रूरत थी। एनसीपी का वजूद रह रह कर उसे उस पल की याद दिलाता है जब पवार कांग्रेस से अलग हुए।
इसलिए राहुल गांधी महंगाई की ठीकरा सहयोगी पर फोड़ कर अपना काम नहीं चला सकते। नेकनामी हमारी, बदनामी तुम्हारी – इस सामंतवादी फलसफे पर पार्टी चलती होगी, साझा सरकारें नहीं। इसलिए राहुल, उनकी पार्टी के प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी सबको इसकी ज़िम्मेदारी लेनी होगी। यही नहीं बल्कि इसपर पार पाने के तरीके भी ढूंढ़ने पड़ेंगे जिसमें अब तक सरकार पूरी तरह नाकाम रही है। गृह मंत्री पी चिदंबरम तो ये कहते फिर रहे कि महंगाई से बड़ा टैक्स कुछ नहीं हो सकता। ये सही है कि बतौर खाद्द आपूर्ति मंत्री शरद पवार अपनी रिपोर्ट कार्ड में कई लाल निशान लगवा चुके हैं। ये नया रिपोर्ट कार्ड भी उन्हे फेल कर गया। क्योंकि हकीकत तो यही है कि बाज़ार पहुंचते ही आम आदमी की जेब सरकार ही काट लेती है। सवाल उठता है कि क्या पवार राहुल गांधी की पार्टी की अगुवाई वाली यूपीए सरकार का हिस्सा हैं या नहीं।
वैसे पिछले महीनों में तो सरकारी भ्रष्टाचार नें भी नई बुलंदियां छुई हैं। इसके पीछे भी पवार का हाथ है या इसको रोक न पाने में हाथ का कमाल है। टू जी स्कैम संसद से सड़क तक चर्चा में है। सरकार की नाक तले उसका एक मंत्री दिन दहाड़े डेढ़ लाख करोड़ के सरकारी पैसा पर चूना लग गया। अब मंत्री डीएमके का था तो इसमें कांग्रेस का क्या दोष। लेकिन कोई राहुल गांधी से ये तो पूछेगा ही कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार को पनपने देते रहे और वक्त रहते कारवाई नहीं कर पाए इसके लिए वो किसको दोषी मानेंगे। वैसे डीएमके प्रमुख और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करूणानिधी ने कहा है कि महंगाई एक राष्ट्रीय विपदा की तरह आई है। भ्रष्टाचार को तरजीह न देते हुए उन्होने महंगाई को देश के लिए ज़्यादा घातक बताया है। करूणानिधी ने भ्रष्टाचार तो साध लिया है पर महंगाई साधे नहीं सध रही। विधानसभा चुनाव मुहाने पर हैं। पिछली बार गरीबों को मुफ्त टीवी और चावल देकर वोट हासिल कर लिए थे। इस बार महंगाई इसके लायक भी न छोड़े। लोगों ने नकार दिया तो डबल ट्रैजेडी हो जाएगी। राजा दिल्ली से बेदखल हो ही चुके हैं, चेन्नई का तख्त भी कहीं हाथ से न निकल जाए। इसलिए पब्लिक सिंपेथी जुटाने के लिए इशारों ही इशारों में सहयोगी कांग्रेस पर निशाना साधा। महंगाई पर काबू पाने के बजाए सरकार अपनी पीठ थपथपा रही कि उसकी योजनाओं से गरीब अमीर हो रहा इसलिए खाद्द पदार्थों की खपत बढ़ रही। मगर दूसरी तरफ खाद्य सुरक्षा विधेयक पर सोनिया की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का मानना है कि सस्ते गेंहू और चावल 33 फीसदी नहीं बल्कि उन 75 फीसदी लोगों को भी मुहैया होने चाहिये जो कहने को गरीबी रेखा से ऊपर हैं। यानि गरीबी के भी कई लेयर्स हैं जो गरीबी मिटाने के सरकारी दावों को सिरे से झुठला देती है।
ज़ाहिर है सरकार के पास हल नहीं है। अब वो आइडिया से भी गरीब हो चुकी है। ये उस पार्टी का आलम है जिसमें शीर्ष पद त्यागने की इ च्छाशक्ति भी है और युवराज को गद्दी सौंपने की तमन्ना भी। अब प्रधानमंत्री इन वेटिंग राहुल गांधी ही बताएं कि अगर वो देश के प्रधानमंत्री होते तो इस समस्या के हल का क्या ब्लूप्रिंट होता उनके पास।
- (मूलतया प्रभात खबर में प्रकाशित)