Monday, January 17, 2011
उतार पर है राहुल गांधी का जलवा
11:48 PM
shailendra gupta
nayaindia.net
जाहिर है राहुल गांधी का जलवा उतार पर है। बिहार में कांग्रेस की हार ने राहुल गांधी के करिश्मे के सवाल पैदा किए है। पहले राहुल गांधी के प्रति चौतरफा सद्भभावना थी। सभी मानते थे कि राहुल गांधी मेहनत कर रहे है। राहुल गांधी की संजीदगी, उनके भलेपन और बेबाकी के सभी मुरीद थे। माना जा रहा था कि उनकी बदौलत कांग्रेस का वोट बैंक बन रहा है। तथ्य है कि उनके भरोसे कांग्रेस है। वे कांग्रेस के मुख्य कैंपेनर है। आज कांग्रेस जिन संकटों में है उससे भी कईयों को राहुल गांधी से उम्मीदे है। लेकिन उनकी अकेले चलने की रणनीति और नौजवानों को मोहने की कोशिश को धक्के लगने लगे है। उनके राजनैतिक फार्मूलों की सफलता को लेकर सवाल उठे है। छात्रों ने उनसे असहज सवाल पूछना शुरू कर दिया है। उसी के चलते वे महंगाई के मामले में एलायंस राजनीति की मजबूरी बता बैठे।
इस नाते राहुल गांधी की 2011 की शुरूआत गडबड है। उन्हे उस उत्तरप्रदेश में काले झंडे देखने पडे जिसमें सभी नौजवानों में उनके प्रति कभी दिवानगी थी। ऐसा जनवरी के उनके दौरे में नहीं था। छात्रों ने राहुल गांधी से संवाद के बाद निराश होने की बात कहीं। किसी का कहना था वे सवालों का जवाब नहीं दे पाएं। वे कहते है नौजवान राजनीति में आए। लेकिन उन्होने नहीं बताया कि आ कर क्या करेंगें? उनसे जब बढती कीमतों और भ्रष्ट्राचार पर पूछा गया तो वे नहीं जानते थे कि उन्हे क्या जवाब देना चाहिए। लखनऊ, झांसी, इलाहाबाद, आगरा में अपने छात्र संगठन एनएसयूआई की सदस्यता के लिए राहुल गांधी की इस बार की मार्केटिंग मीडिया में हवा बिगाडने वाली थी। एक वक्त था जब राहुल गांधी जिधर निकलते थे उनकी झलक पाने के लिए नौजवानों की भीड टूट पडती थी। छात्रों की कतार इस बार भी थी लेकिन छात्रों ने तल्ख सवाल किए। विरोधी छात्र संगठनों ने काले झंडे दिखाएं। आखिर में अखबारों में छपा कि राहुल गांधी छात्रों को प्रभावित करने में नाकाम रहें।
जाहिर है राहुल गांधी का ग्लैमर छात्र राजनीति के बाक्स ऑफिस में फीका पडा है। एक प्रमाण छात्र संघों के चुनावी आकंडों का भी है। राहुल गांधी के एनएसयूआई और भाजपा की एबीवीपी के ताजा आंकडों की मीडिया रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि एनएसयूआई से ज्यादा एबीवीपी का जलवा है। केरल जैसे प्रदेश में एबीवीपी ने 76 कॉलेजों में चुनाव लडा और 12 जगह उसकी पैनल बनी। दिल्ली के डूसू में अर्से बाद 4 में से 3 पद एबीवीपी को मिले। डूसू में एनएसयूआई की अकल्पनीय हार हुई। राजस्थान के 197 क़ॉलेजो में से 105 में एबीवीपी जीती। ऐसे ही विर्दभ में 35 में से 19 और मध्यप्रदेश के 212 क़ॉलेजों में एबीवीपी जीती। जाहिर है राहुल गांधी के फोकस वाले संगठन एनएसयूआई की भी छात्रों में आंधी नहीं है।
सो राहुल गांधी का जलवा अब कुछ वैसा ही है जैसे फिल्मों में खानदानी बैकग्राउंड वाले सिने स्टार अभिषेक बच्चन का है। अच्छी शक्ल, खानदानी विरासत, सुरक्षा ताम-झांमों और मनभावन नुस्खों से राहुल गांधी नौजवानों में अपनी जो जगह बना रहे थे उस पर यह सवाल हावी हो चुका है कि आखिर कब तक बातें होती रहेगी? किसी दलित के घर रात में ठहरने या किसी कलावती की झौपडी में जाने या मैं तो बच्चा हूं के भलेपन और मासूमियत के अंदाज में कुछ साल हिट रहा जा सकता है लेकिन अंत में आज का नौजवान भी चाहेगा कि राहुल गांधी दे क्या रहे है? नौजवान हो या बूढा, महिला हो या पुरूष सभी को आज काम चाहिए, फटाफट खुशहाली चाहिए। गांधी परिवार की विरासत की वजह से राजनैतिक पर्दे पर राहुल गांधी की सुपरस्टार वाली फिल्म चली और दर्शक देख रहे है कि वक्त गुजर रहा है लेकिन उनका सुपर स्टार बिना एक्सन के है। लोग सांस रोक इंतजार में है कि महंगाई, भ्रष्ट्राचार, कदाचार जैसे खलनायकों को राहुल गांधी कब खत्म करेगें। राहुल गांधी की राजनैतिक फिल्म की मार्केटिंग में यह प्रचार हुआ था कि वे दो भारत की दीवार को तोडने के महानायक है। वे सच्चे सिपाही है। वे जनता का पैसा खाने वाले भ्रष्ट्राचारियों से निपटेगें। वे कलावती की झौपडी को बिजली से जगमग करेगें। मतलब राहुल गांधी आएं है तो राजनीति बदलेगी, व्यवस्था सुधरेगी और विकास की रफ्तार एक्सप्रेस ट्रैन जैसे सरपट दौडेगी।
पर राहुल की ट्रैन में बिहार के लोग नहीं बैठे। बिहार में राहुल गांधी की फिल्म बुरी तरह फ्लाप हुई। लोगों ने राहुल गांधी के राजसी वायदों के बजाय नीतिश कुमार पर ठप्पा लगाया तो वजह लोगों की एक्शन चाहत है। नीतिश कुमार ने किसी दलित के घर खाना नहीं खाया था। न उन्होने किसी दिग्विजयसिंह को पकड कर भगवा आंतकवाद से मुसलमानों को रिझाया। न ही बीजेपी को छोडा। बावजूद इसके मुसलमानों का भी वोट मिला और महादलित भी आएं। राहुल गांधी के विकास की एक्सप्रेस रेल के धुंआधार प्रचार पर लोगों ने यही माना कि ये बातें है। राहुल गांधी सिर्फ बातें करते है।
दरअसल राहुल गांधी अपने ही बनाएं एक राजनैतिक पैटर्न में बंध गए है। जबकि कांग्रेस में भी नेता उनसे उम्मीदे ज्यादा है। नेता चाहते है कि वे कांग्रेस संगठन और सरकार में निर्णायक रोल निभाएं। कुछ करके दिखाएं। बात नहीं बल्कि काम करें। वे चुनाव होते है तो आम जनता से वोट मांगते है और जब चुनाव नहीं होते है तो वे सिर्फ नौजवानों के बीच घूमते है। उन्हे राजनीति में आने के लिए कहते है। उन्हे और उनकी टीम को बिहार के बाद रणनीति बदलनी चाहिए थी। पर लगता है राहुल गांधी और उनकी टीम ने बिहार से सबक नहीं सीखा है। वे यह नहीं समझ रहे है कि छात्र यदि उनसे महंगाई और भ्रष्ट्राचार के सवाल पूछ रहे है तो वे उनसे तलवारबाजी वाले एक्शन चाह रहे है। उनके चेहरे को देखते हुए लोग आखिर कितने साल उम्मीदे बांधे रखेगें? एक तरफ उनकी बातों का अंतहीन सिलसिला है तो दूसरी और नरेंद्र मोदी, नवीन पटनायक, नीतिश कुमार, रमनसिंह, शिवराज, मायावती आदि की एक्शन केंद्रीत फिल्में है। ध्यान रहे राहुल गांधी अपने प्रादेशिक मुख्यमंत्रियों को कस कर उनसे भी रिजल्ट नहीं दिलवा पा रहे है। तभी वक्त के साथ राहुल गांधी की फिल्म उबाऊं बनती जाएगी। राहुल गांधी को हर हाल में 2011 में एक्शन बताना होगा अन्यथा 2012 में उत्तरप्रदेश का दंगल उन्हे कहीं पूरी तरह फ्लॉप नहीं करार दे।