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Tuesday, January 11, 2011

गर राहुल गांधी ही कांग्रेस का भविष्य हैं तो, हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं है

कांग्रेस के इतिहास में राहुल गांधी एक महत्वपूर्ण अध्याय साबित होंगे। इसलिए नहीं कि भारतीय राजनीति में वे कांग्रेस को पुर्नस्थापित करने की क्षमता रखते हैं बल्कि इसलिए कि यह विश्वास हो जाएगा कि आलू-गोभी की तरह नेता भी पैदा किया जा सकता है। मेज-कुर्सी की तरह नेता भी गढ़ा जा सकता है। इक्कीसवीं सदी में अगर कम्प्यूटर एसेम्बल किया जा सकता है तो नेता क्यों नहीं? अगर राहुल गांधी ही कांग्रेस का भविष्य हैं तो कांग्रेस के हाथों में हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं है।

सीताराम केसरी लंबे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे और उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बनने का मौका भी मिला। केन्द्रीय राजनीति से उनकी विदाई जितनी अपमानजनक थी केन्द्रीय राजनीति में उनका प्रवेश उतना ही सम्मानजनक था। श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें बिहार से दिल्ली बुलवाया। कहा आपको हम कोषाध्यक्ष की जिम्मेदारी देना चाहते हैं। तुरंत हां करने की बजाय उन्होंने श्रीमती गांधी से दो दिन का समय मांगा। वे वापस बिहार अपने घर गये। सबके सामने अपनी बात रखी। घरवालों को भला क्या ऐतराज हो सकता था। लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी कि जब तक मैं उच्च पदों पर रहूंगा कोई भी पारिवारिक सदस्य उस पद का उपयोग नहीं करेगा, और मैं भी आप लोगों के लिए उस पद का उपयोग नहीं करूंगा।
यह उस कांग्रेस का किस्सा है जहां राहुल गांधी का भी उदाहरण है। अभी गाजे-बाजे के साथ उन्हें महासचिव बना दिया गया है. कांग्रेस के इतिहास में राहुल गांधी एक महत्वपूर्ण अध्याय साबित होंगे। इसलिए नहीं कि भारतीय राजनीति में वे कांग्रेस को पुर्नस्थापित करने की क्षमता रखते हैं बल्कि इसलिए कि यह विश्वास हो जाएगा कि आलू-गोभी की तरह नेता भी पैदा किया जा सकता है। मेज-कुर्सी की तरह नेता भी गढ़ा जा सकता है। इक्कीसवीं सदी में अगर कम्प्यूटर एसेम्बल किया जा सकता है तो नेता क्यों नहीं? अगर राहुल गांधी ही कांग्रेस का भविष्य हैं तो कांग्रेस के हाथों में हमारा भविष्य सुरक्षित नहीं है।
वंशवाद पर चर्चा से पहले थोड़ा उस प्रक्रिया को जान लेना उचित होगा जिससे कोई राजनीतिक नेतृत्व पैदा होता है। आज के माहौल में यह स्थापित सत्य है कि शीर्ष पर पहुंचने के लिए काम की नहीं व्यावहारिक चतुराई की जरूरत होती है। यह कोई नयी अवधारणा नहीं है। किसी भी व्यवस्था में चारणों का एक वर्ग हमेशा रहता है जो स्तुतिगान करके इनाम हासिल करता है। राजनीति कोई अपवाद नहीं है। लेकिन यह प्रवृत्ति मुख्यधारा नहीं हो सकती। मुख्यधारा तपे-तपाये लोगों की ही होनी चाहिए। इसकी शुरूआत बहुत छोटे स्तर से होती है। गांव या वार्ड स्तर पर काम शुरू करने वाले व्यक्ति की जैसी राजनीतिक ट्रेनिंग होती है वह न केवल उसके लिए अच्छी होती है बल्कि पूरे समाज के लिए वह कल्याणकारी साबित होता है। शीर्ष पर बैठा कोई व्यक्ति जो निर्णय करता है उसकी आखिरी प्रभाव गांव और वार्ड पर ही होता है।
राजनीति में रेलमंत्री लालू यादव इसलिए सफल नहीं है क्योंकि उनको बहुत व्यावसायिक ज्ञान है। उसके लिए पढ़े-लिखे विशेषज्ञ लोगों का तबका होता ही है। रेलमंत्री के रूप में लालू यादव इसलिए सफल हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि जो पैसे नहीं दे सकते उनको भी लगना चाहिए कि रेलवे उनके लिए सुविधाएं दे रहा है। जमीन से उड़ना जरूर चाहिए लेकिन इस होश के साथ कि यह उड़ान तभी तक संभव है जब तक जमीन है। जमीनी स्तर की समझ यही है।
नब्बे के दशक में छोटे दलों का उदय और उनकी सफलता ने परिवारवाद के रोग को व्यापक कर दिया। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम हर जगह उत्तराधिकार के लिए परिवार के किसी सदस्य को तैयार करने की प्रवृत्ति ही चल रही है। इसके पीछे कोई ईमानदार कारण या फिर पारिवारिक सदस्य की योग्यता नहीं है। इसके पीछे है अकूत धन-संपत्ति और सत्ता की शक्ति।
व्यक्ति केन्द्रित राजनीति का एक फायदा यह है कि उत्तरदायित्व तय होता है लेकिन एक बड़ा नुकसान यह है कि वह उत्तरदायी व्यक्ति भी आखिर व्यक्ति ही होता है। मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव इसके बहुत अच्छे उदाहरण है। इनकी शुरूआत जमीन की राजनीति से हुई है। इतनी अल्प अवधि में इतनी बड़ी राजनीतिक शक्ति खड़ी कर लेना कोई छोटी बात नहीं है। लेकिन उसका परिणाम क्या हो रहा है? मुलायम सिंह यादव के सबसे नजदीकी अमर सिंह हैं और लालू प्रसाद यादव के सबसे नजदीकी प्रेम गुप्ता हैं। इन दोनों ही लोगों की छवि एक मैनेजर की है। मुलायम सिंह यादव भले ही आज भी आधी टांग तक उठी धोती पहनते हों लेकिन उनके नाम पर अमर सिंह ने एक साम्राज्य खड़ा कर लिया है। यह राजनीति का व्यवसायीकरण है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मुलायम सिंह अपने भाई, बेटे और विश्वस्त अमर सिंह के बीच लगातार संतुलन साधने में लगे रहते हैं। समाजवाद बदलकर परिवारवाद तक सिमट गया है। लालू प्रसाद की स्थिति भी यही है।
परिवार एक व्यवस्था है जिसका विस्तार जातियों और समूहों में होता गया है। इसलिए एक राजनीतिक माहौल वाले परिवार में राजनीतिक व्यक्ति ही पैदा होता है। एक फिल्मी माहौल में पला-बढ़ा बच्चा जाहिर है फिल्म की किसी विधा में ज्यादा निपुण होगा। देश में लाल बहादुर शास्त्री का नाम हर नागरिक बहुत निष्ठा से लेता है। उनके जैसा कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार व्यक्ति राजनीति में वरदान के समान थे। उनके दो लड़के अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री आज कहां हैं? क्या वे अपने राजनीतिक कल्याण के लिए आज अपने बाप का नाम प्रयोग नहीं कर रहे हैं? क्या मानेका गांधी वरूण गांधी के राजनीतिक कल्याण के लिए संजय गांधी के नाम का प्रयोग नहीं कर रही हैं? यह सवाल ही बेतुका है कि राजनीति में परिवारवाद नहीं होना चाहिए। असली बहस का विषय यह है कि क्या देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं को बचाया जा सकता है या नहीं? देश के स्वभाव के अनुसार लोकतंत्र सटीक है या फिर हमें किसी नयी प्रणाली के बारे में सोचना चाहिए?
लोकतंत्र की पूरी अवधारणा पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। जबर्दस्ती लोकतंत्र के जिन प्रतीकों को मंदिर बताया जाता है भारतीय मानस उनको कभी मंदिर के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता। अदालत से अधिक विश्वसनीयता और प्रामाणिकता मंदिर की रहेगी ही। ऐसे लोकतांत्रिक ढांचे से परिवारवाद का पैदा होना सहज प्रक्रिया है। तकलीफ तब होती है जब राहुल गांधी जैसे लोगों को राजनीतिक नेतृत्व के रूप में थोप दिया जाता है।