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Sunday, June 26, 2011

इंदिरा गाँधी v/s जेपी, सोनिया गाँधी v/s अन्ना

वरिष्ठ पत्रकार  रामबहादुर राय

रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
 
इन दिनों जन आंदोलन की खेती से नई राजनीति की फसल लहलहाने के आसार दिखते ही प्रणब मुखर्जी जैसे अनुभवी और समझदार कांग्रेसी इमरजेंसी की मनोग्रंथि से ग्रस्त हो जाते हैं। उनको तुरत-फुरत 1974 की परिस्थितियां सताने लगती हैं। यह दिखाता है कि विदेशों में जमा कालेधन की वापसी और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए पैदा हुए जन उभार से कांग्रेस के नेताओं के होश उड़ गए हों। वैसे ही जैसे 12 जून 1975 को हुआ।


तब पश्चिम बंगाल के बैरिस्टर मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय ने इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने की सलाह दी थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री पद छोडऩा पड़ता। उसे बचाने के लिए उन्होंने लोकतंत्र की हत्या कर डाली, जिसके लिए उन्हें देश से बाद में माफी मांगनी पड़ी। प्रणब मुखर्जी न तो सिद्धार्थ शंकर राय जैसे विश्वासपात्र हैं न मनमोहन सिंह इंदिरा गांधी हो सकते हैं। असली सत्ता दस जनपथ में हैं। इसे कौन नहीं जानता? इंदिरा गांधी के जमाने में प्रधानमंत्री कार्यालय का महत्व घटा और प्रधानमंत्री निवास की महत्ता कायम हुई। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में न प्रधानमंत्री कार्यालय और न निवास ही मायने रखता है। जहां असली सत्ता है उसे ‘राजकुमार’ राहुल गांधी के राजनीतिक रूप से बालिग होने का इंतजार है। दिग्विजय सिंह का प्रमाणपत्र और प्रणब मुखर्जी का बयान एक ही सुर में है।
अगर यह मान लें कि अन्ना हजारे और स्वामी रामदेव ने अपने-अपने अभियानों से मौजूदा राजनीति के व्याकरण को चंद दिनों में ही बदल दिया है तो यह भी मानना पड़ेगा कि अप्रैल से जून के दौरान लोग जो लाखों की संख्या में सड़क पर उतरे वे बढ़ते ही रहेंगे, रुकेंगे नहीं और न कम होंगे। उनका कारवां चलता रहेगा, मंजिल पर पहुंचने तक। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि पहले भी लोगों ने आंदोलनों को परख कर ही समर्थन दिया है। जब सत्ता से टकराने की चुनौती सामने थी तब महात्मा गांधी की श्रृंखला में जेपी माने गए, विनोबा खारिज कर दिए गए। अन्ना हजारे इस समय सत्ता से टकराने की परंपरा में देखे जा रहे हैं। उन्हें चुनाव नहीं लडऩा है। वे कुर्सी के खेल में नहीं हैं। शायद यह भी एक बड़ा कारण है जिससे युवा प्रेरित हो उठा है। वह युवा जिसे उपभोक्ता संस्कृति में डूबा हुआ समझा जा रहा था। यही वह बदलाव है जिसने मनमोहन सिंह सरकार की नींद उड़ा दी है।
चार नवंबर, 1974 वह तारीख है जब इंदिरा गांधी और जेपी में सीधा टकराव तय हो गया। जेपी चाहते थे कि इंदिरा गांधी बिहार विधानसभा को भंग कर दें क्योंकि वह लोगों का विश्वास खो चुकी है। जवाब में इंदिरा गांधी ने चुनाव के मैदान की चुनौती दे डाली। जेपी इसे स्वीकार नहीं करते तो करते क्या? पटना की रैली से पहले इंदिरा गांधी ने उमाशंकर दीक्षित से अब्दुल गफूर को कहलवाया कि जेपी को गिरफ्तार करो। गफूर ने इंकार कर दिया। उसकी कीमत भी चुकाई और उन्हें हटाकर मुख्यमंत्री पद पर जगन्नाथ मिश्र बैठाए गए। इसे पूरी तरह समझने में विशन टंडन की डायरी का वह पन्ना खास मदद करता है, जिसमें इंदिरा गांधी और जेपी की मुलाकात का सार दिया हुआ है। बिहार के तत्कालीन मुख्य सचिव पीकेजे मेनन ने भी अपनी किताब में चार नवंबर को ही निर्णायक दिन बताया है।
तब और अब में बहुत फर्क भी है। फर्क यह है कि राजनीतिक नेतृत्व ने अपने को ऐसा बना लिया है कि उस पर किसी का भरोसा रहा नहीं। सत्ता और विपक्ष एक ही पलड़े पर हैं। राजनीति का पर्याय भ्रष्टाचार है। इसे पलट कर भी कह सकते हैं। जब सत्ता और विपक्ष में कोई गुणात्मक अंतर न रह जाए तब आंदोलन की आशा वहां से नहीं की जा सकती जहां से परंपरागत रूप में लोग उम्मीद करते हैं। गनीमत है कि ऊर्जा के नए स्रोत पैदा हो गए हैं। एक खास तरह की समानता भी देखी जा सकती है। जेपी ने भी स्वच्छ और स्वस्थ राजनीति के लिए अपने बुढ़ापे को दांव पर लगा दिया था। अन्ना ने भी वही राह ली है।
स्वामी रामदेव जब से भगोड़े साबित हुए हैं उनकी बोली बदली है और तय है कि उन्हें अन्ना के पीछे चलना होगा। इनके अलावा एक नई पहल जो भिन्न किस्म की है जिसकी मूल प्रकृति राजनीतिक है वह गोविंदाचार्य ने की है। एक खास बात और है। देश में साधु-संतों की जमातें गिनती में एक करोड़ पहुंचती हैं। इससे डेढ़ गुना ज्यादा एनजीओ समूहों में काम करने वालों की है। जेपी आंदोलन में ये तत्व या तो नदारद थे या उनकी मौजूदगी बहुत नगण्य रूप में दूसरी तरह की थी। उसमें राजनीतिक जमातों की भरमार थी। साधु-संतों और एनजीओ समूहों का बड़ा हिस्सा सरकार से नाराज हो उठा है। इससे जन उभार की व्यापकता बढ़ेगी। सवाल यह है कि क्या ऐसी हलचलों से लोकतंत्र खतरे में पड़ेगा? कोई यह न समझे। इसे भारतीय लोकतंत्र की सतरंगी छटा क्यों न समझें। हर बार अराजकता का भय देखना दिखाना छोड़ देना चाहिए।
लेखक रामबहादुर राय वरिष्ठ और जाने-माने पत्रकार हैं. उनका यह लिखा दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित हुआ है