बाबा रामदेव ने आमतौर पर राष्ट्रीय सरोकारों के बहुत प्रासंगिक मुद्दों को ही उठाया है. उन्होंने हजार रुपये के नोट पर प्रतिबंध लगाने के लिए कहने से लेकर (इससे कालेधन की जमाखोरी दस गुना कहीं ज्यादा आसान हो जाती है. यही कारण है कि अमेरिका और ब्रिटेन में सबसे बड़ी मुद्रा 100 ही है) स्विस बैंकों में छुपा कर रखे गए 1.4 ट्रिलियन डॉलर को वापस लाने तक की मांग भारत सरकार के समक्ष उठाई है. (भारत ऐसा देश है, जो विदेश में काला धन रखने के मामले में सबसे आगे है. दूसरे नंबर पर 400 बिलियन डॉलर के साथ रूस, तीसरे पर यूके, चौथे पर यूक्रेन और 96 बिलियन के साथ चीन पांचवें स्थान पर है.) बाबा रामदेव अकेले ऐसे जननेता हैं, जिनके देशभर में अनुयायी हैं और जिनके नुस्खों से लाखों भारतीयों को लाभ पहुंचा है. वे वास्तव में उनकी कसमें खाते हैं. इस तरह की भी चर्चाएं थीं कि भाजपा से असंतोष के चलते संघ से बाबा की नजदीकियां बढ़ रही हैं. स्वाभाविक रूप से सरकार के पास डरने की वजहें थीं. सरकार बुरी तरह से भयभीत थी. खासतौर पर तब, जबकि समूचे संसार में नागरिक समाज की त्योरियां चढ़ी हुई हैं. ऐसे समय में, इस आंदोलन को दबाना और वह भी देश की राजधानी में, जबकि भारतीय लोकतंत्र में इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.सरकारी कार्रवाई से स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह सरकार दानवी हो गई है और दिन-ब-दिन देश पर राज करने का अधिकार खोती जा रही है.
क्या देश में सरकार नाम की कोई चीज नहीं रह गई है या फिर वे मानते हैं कि देश के लोग मूर्ख हैं और वे चुपचाप इस तरह की तानाशाही स्वीकार कर लेंगे तथा 2014 में एक बार फिर उन्हें वोट देकर सत्ता में वापस ले आएंगे? क्या उन्होंने तमिलनाडु में द्रमुक की भारी पराजय से कोई सबक नहीं लिया, जहां की मीडिया उनके नियंत्रण में थी, फिर भी जनता ने उन्हें उखाड़ फेंका.यह घटना यह भी साबित करती है कि हमारे विपक्षी दल, खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी, किस कदर रीढ़विहीन दल बनकर रह गई है. इस देश में तब तक दमदार विरोध होते रहना चाहिए जब तक कि प्रधानमंत्री नैतिकता के आधार पर पद छोड़ऩे के लिए मजबूर नहीं हो जाते या इस दानवी कार्रवाई के लिए कम से कम खेद नहीं जता देते. उन्हें बेशर्मी से यह कहने की इजाजत नहीं दी जा सकती कि ऐसा अपेक्षित था और इसे टाला नहीं जा सकता था या फिर राहुल गांधी को इस तरह का बचकाना बयान देने की इजाजत नहीं दी जा सकती कि कांग्रेस पार्टी ऐसे विरोध की इजाजत नहीं देती! कथित तौर पर सबसे बड़े लोकतंत्र में यह कितना बड़ा मजाक है. यही समय था, जब भाजपा नेता अंतर्कलह से उबरकर सरकार को उसकी औकात बताते. क्या उन्होंने इसका फायदा उठाया या फिर उन अनगिनत मौकों का, जो इस सरकार ने उन्हें मुहैया कराए. इसके जरिए वे सत्ता में अपनी वापसी सुनिश्चित करा सकते थे. ऐसा नहीं हो सका, लेकिन देखिए, अगर ऐसा हो जाता तो ऐसा बहुत कुछ भाजपा के कारण होता, लेकिन बहुत कुछ भाजपा के बगैर भी हुआ.
यह दुखद और शर्मनाक है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को 24 घंटे की चेतावनी देने और उसके बाद सख्त कार्रवाई करने की बजाए, जो कुछ भी घटित हुआ, उसका जवाब देने के लिए 14 दिनों का समय दे दिया, ताकि उन्हें जोड़-तोड़ और जिम्मेदारी से पल्ला झाडऩे के लिए पर्याप्त समय मिल सके लेकिन सबसे बुरी बात यह रही कि इस घटना के दौरान 'इंडिया' और 'भारत' के बीच स्पष्टï रूप से विभाजन नजर आया. एक ऐसी भीड़, जिसमें मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के लोग शामिल थे, उसके विरुद्घ सरकार को ऐसी कार्रवाई करने की जुर्रत नहीं करनी चाहिए थी लेकिन सरकार ने ऐसी धृष्टïता इसलिए की, क्योंकि वहां जो लोग थे, वे देश के असहाय और गरीब तबके का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. ठीक ऐसा ही मीडिया के साथ भी हुआ और वह भी इस हकीकत के बावजूद कि मीडिया के ज्यादातर लोग तथाकथित भारत से ही ताल्लुक रखते हैं. जब अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ तो डिजाइनर परिधानों में सुसज्जित दिल्लीवासियों का हुजूम उनका समर्थन करने के लिए वहां मौजूद था और मीडिया का उत्साह भी सातवें आसमान पर था लेकिन जब आम आदमी, जो भारत की नुमाइंदगी करता है, बाबा रामदेव के समर्थन में सड़क पर उतरा तो वही मीडिया, आंदोलन को संदेह की दृष्टि से देख रहा था और उस पर सवाल खड़े कर रहा था.
हम जिस देश में रहते हैं, उस पर हमें गर्व है-और अक्सर इस बात की आलोचना भी की जाती है-कि हमारा संविधान, कानून और लोकतांत्रिक ढांचा हमें अंग्रेजों से विरासत में मिला है, इसके बावजूद यह आश्चर्यजनक है कि ब्रिटिश लोकतंत्र का सबसे महान गुण हमें नजर नहीं आता है. आप ब्रिटेन की राजधानी लंदन के हाइड पार्क और पार्लियामेंट इलाके में प्रवेश करें तो देखेंगे कि चारो ओर हर तरह के प्रदर्शनकारी बैठे हुए हैं और प्रदर्शन कर रहे हैं! दिल्ली में अगर आज कोई विरोध प्रदर्शन करना चाहे तो उसे इसकी अनुमति नहीं मिलेगी. यह अविश्वसनीय है! गांधीजी की धरती पर, अगर लोग शांतिपूर्वक विरोध करना चाहें तो न केवल उनका निमर्मतापूर्वक दमन कर दिया जाएगा, बल्कि उन्हें तड़ीपार भी घोषित कर दिया जाएगा. यह वह लोकतंत्र नहीं है, जिसका गांधीजी ने सपना देखा था. अगर सीधे-सरल शब्दों में कहें तो यह चाटुकारों की शर्मनाक और अक्षय तानाशाही है और इसका निश्चित तौर पर खात्मा होना चाहिए.
: IIPM के संस्थापक निदेशक, प्लानमैन कंसल्टेसी के कर्ताधर्ता और प्लानमैन मीडिया के प्रधान संपादक अरिंदम चौधरी बहु प्रतिभा के धनी हैं. 2006 में प्लानमैन मीडिया के तहत हिन्दी अंग्रेजी सहित 14 भारतीय भाषाओं में न्यूज मैगजीन के प्रकाशन का काम शुरू किया जो एक विश्व रिकार्ड है.






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