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Thursday, March 10, 2011

अमेरिका डॉ मनमोहन सिंह की तुलना में राहुल गांधी को नापसंद करता है

वीकएंड टाइम्स

 भारत और मिस्र की परिस्थितियों में आश्चर्यजनक समानताएं हैं। भ्रष्टाचार, मंहगाई, बेरोजगारी और ग्रामीण गरीबी के लिहाज से सवा अरब के भारत और साढे छह करोड़ के मिस्र में कोई खास अंतर नहीं है।  फिर भी एक लाख लोग मिस्र की राजधानी कैरो के तहरीर स्क्वायर पर जमा होते हैं और मिस्र में क्रांति का आगाज हो जाता है।  ठीक उसी वक्त इधर भारत के एक छोटे से नगर इलाहाबाद में करीब एक करोड़ लोग क्रमश: आते हैं और गंगा स्नान करके बड़ी शांति से चले जाते हैं और व्यवस्था के नाम पर भी विरोध दर्ज नहीं कराते हैं।

ऐसा आखिर क्यों होता है कि दुनिया के दो देशों में समान परिस्थितियां होते हुए भी नागरिक दो विभिन्न प्रकार से व्यवहार करते हैं? जिस समय मौनी अमावस्या पर बिना बुलाए लाखों लाख लोग अपने सिर पर ईधन, अनाज आदि का बोझ लेकर कोसों पैदल चल रहे थे, ठीक उसी समय टेलीवीजन पर मिस्र की राजधानी काहिरा के तहरीर स्क्वायर पर जनक्रांति का बिगुल बज रहा था।  मौनी अमावस्या पर उमड़ी भीड़ का बमुश्किल एक फीसदी अंश ही काहिरा में होस्नी मुबारक की अनियंत्रित सत्ता को चुनौती दे रहा था।  मिस्र और हिन्दुस्तान वैश्विक व्यवस्था के दो मानसूनी प्रदेश हैं।  जलवायु के स्तर पर तो दोनों में साम्य है ही, दोनों प्राचीन सभ्यताएं भी हैं।  गुटनिरपेक्ष आंदोलन की दो प्रमुख धुरिया रही हैं।  पंडित नेहरू और नासिर किसी युग में गुट निरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिकी की अखण्ड सत्ता को चुनौती देने का इरादा रखते थे।
1980 के दशक में अनवर सादात ठीक उसी अंदाज में राजनीतिक षण्यंत्र के तहत मारे गये जिस अंदाज में 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई।  अनवर सादात के जाने के बाद हुस्नी मुबारक मिस्र की राजनीति के निर्विकल्प नेता हो गये।  1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो जनादेश प्राप्त हुआ था यदि उस जनादेश को क्षेत्रीय क्षत्रपों ने चुनौती न दी होती और उस चुनौती को यदि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की उर्जा न मिली होती तो निश्चित तौर पर राजीव गांधी हिन्दुस्तान के होस्नी मुबारक साबित होते।  अनवर सादात की उनके अंगरक्षकों ने हत्या की थी, इंदिरा गांधी भी अपने अंगरक्षकों के हाथों मारी गयी थी।  अनवर सादात अमेरिकी व्यवस्था के मुखालिफ थे।  एक बड़ा वर्ग आज भी मानता है कि यदि राजीव गांधी खाड़ी देशों के युद्ध के दौरान इराक पर हमला करनेवाले अमेरिकी युद्धक विमानों को हिन्दुस्तान में ईंधन भरने से नहीं रोकते तो शायद लिट्टे उनकी बलि लेने के लिए उतनी जल्दी उतावला नहीं हो जाता।
मिस्र और हिन्दुस्तान का यह राजनीतिक साम्य मनो मष्तिष्क में कौंध रहा है।  होस्नी मुबारक अपने पुत्र गमल मुबारक को सत्ता सौंपने की जिद पर नहीं अड़ते तो मिस्र में जनक्रांति नहीं होती।  हिन्दुस्तान में सोनिया गांधी होस्नी मुबारक की तरह ही अपने पुत्र राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की जिद पर अड़ी हैं।  अमेरिका डॉ मनमोहन सिंह की तुलना में राहुल गांधी को ठीक उसी तरह से नापसंद करता है जिस तरह से गमल मुबारक के नाम पर आपत्ति है।  1984 में सत्ता के सूत्र पूरी तरह से राजीव गांधी के हाथों में आते ही हिन्दुस्तानी सत्ता संचालक अमेरिकी व्यवस्था की बजाय यूरोपीय लीग में काम करने लगा था।  डॉ सुब्रमण्यम स्वामी की बातों पर यदि विश्वास किया जाए तो सोनिया गांधी ठहरी केजीबी की एजंट।  अमेरिकी और हिन्दुस्तान के बीच हथियारों के तमाम समझौते हुए हैं।  अब तो इस देश का आम आदमी भी जान गया है कि कोई भी शस्त्र समझौता कमीशनखोरी के बिना नहीं होता।  फिर बोफोर्स समझौते पर ही बखेड़ा क्यों खड़ा हुआ होगा? इसीलिए कि वे अमेरिकी विरोधी शक्तियों के साथ सामंजस्य स्थापित करते पाये गये होंगे।  1987 से 1989 के बीच जब क्षेत्रीय क्षत्रपों को लगा कि केन्द्रीय सत्ता सिर्फ एक परिवार पर आश्रित हो गयी है तब जाति, संप्रदाय, नीति, सिद्धांत के जितने भी टकराव थे उन सबको बिसारकर केन्द्र के खिलाफ एक जबर्दस्त गोलबंदी हुई।  उस गोलबंदी में 400 से अधिक लोकसभा सदस्यों के बल वाले राजीव गांधी को 200 से भी कम की औकात पर ला पटका।  जनआंदोलन को दिशा इसी इलाहाबाद से मिली थी।
नेतृत्व का अभाव और समझौतावादी मानसिकता दो ऐसे कारण हैं जो भारत में जनक्रांतियों को जन्म देने से रोक रहे हैं।  छुटपुट विरोध और स्थानीय आंदोलन भी लंबे समय तक इसलिए नहीं टिक पा रहे हैं कि उनको केन्द्रीय नेतृत्व नहीं मिल पा रहा है।  इसलिए विरोधाभासों के बावजूद हम परिस्थियों का विरोध करके उन्हें अपने अनुकूल बनाने की बजाय हम उसके अनुकूल अपने आप को ढाल लेते हैं।
मांडा के राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह राजा नहीं फकीर, देश की तकदीर है का नारा लगवाते हुए देवीलाल, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह, बीजू पटनायक, राम विलास पासवान, एनटी रामाराव, ज्योति बसु समेत लगभग एक दर्जन क्षेत्रीय क्षत्रपों के बूते राजीव गांधी के विकल्प बन गये थे।  भ्रष्टाचार के खिलाफ 1989 में जो जनक्रांति होनी चाहिए थी।  लेकिन इस देश का चाल चरित्र और चिंतन जनक्रांति वाला नहीं है।  इस देश की व्यवस्था जनादेश के बूते बदल जाती है।  1975 में आपातकाल लानेवाली इंदिरा गांधी दो वर्षों तक तमाम विपक्ष को जेल में ठूंसकर भी 1977 में बैलट के बूते सत्ता से बाहर हो जाती हैं।  शाह बानो के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट देनेवाले राजीव गांधी विपक्ष में बैठा दिये जाते हैं लेकिन कहीं भी न हिंसा होती है, न जनक्रांति।  नक्सलवाद के नाम पर जो लाल गलियारा बना है अगर वहां तक बैलेट बाक्स ठीक ढंग से पहुंच जाए तो नक्सलवाद जनवाद में बदल जाएगा।  इसलिए माघ मेले में अस्सी लाख से अधिक श्रद्धालु जमा हो सकते हैं लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग तभी शुरू हो पाती है जब कोई देवीलाल हरियाणा के सत्ता बल से वोट क्लब को घेरने के लिए ग्रीन ब्रिगेड तैयार करता है।
दिल्ली से निकटता के चलते सिर्फ छह सांसदों के बल वाले देवीलाल दो दर्जन से अधिक सांसदों के नेता करुणानिधि से कहीं ज्यादा बलवान दिखाई देते थे।  दिल्ली के खिलाफ एक बार फिर भ्रष्टाचार विरोधी लहर है लेकिन इस लहर को नेतृत्व कौन प्रदान करे? भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री के बोझ से दबा हुआ है।  लोकसभा के विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के विपक्ष के नेता अरुण जेटली में न मुद्दा है न माद्दा।  1987 से 1989 के बीच गांधी परिवार के असीम सत्ता के खिलाफ जनआंदोलन खड़ा करनेवाले क्षेत्रीय क्षत्रप या तो चुक गये हैं या सत्ता के असीमित उपभोग ने उनकी धार को कुंद कर दिया है।  देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चौटाला की हरियाणावाले ही सुन लें तो गनीमत।  बीजू पटनायक के बेटे नवीन पटनायक उड़ीसा में लगातार सत्ता में आते रहे हैं।  लेकिन पास्को की डील के लिए उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय के चक्कर लगाने की मजबूरी को समझा जा सकता है।  चिमनभाई पटेल की पार्टी दशकों पहले कांग्रेस में विलीन हो चुकी है।  लालू प्रसाद किसी जमाने में बिहार की कांग्रेस विरोधी राजनीति के सबसे बड़े अगुवा थे।  देवेगौड़ा और गुजराल के शासनकाल में उन पर चारा घोटाले का जो चक्र चला उसने 2003 में उन्हें सोनिया गांधी का भगुआ बनने पर मजबूर कर दिया।  2004 से 2009 के बीच वे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में सोनिया गांधी के सबसे मुखर प्रवक्ता रहे।  परिणिति यह है कि आज उन्हें गांधी परिवार इस कदर हाशिये पर फेक चुका है कि आनेवाली राजनीति वे किस दिशा में चलकर पूरा करें।