(हिंदू कट्टरपंथियों पर अमरीकी राजदूत को दिए गए राहुल गाँधी के बयान पर)
लेखक: प्रेमचंद सहजवाला
जब देश आज़ाद हुआ, तब पंडित नेहरू के सामने देश की असंख्य समस्याओं के अतिरिक्त देश में आज़ादी पूर्व से ही चला आ रहा हिंदू-मुस्लिम तनाव भी एक समस्या था. जिन्ना पाकिस्तान के रूप में अपना हिस्सा ले कर अलग हो चुके थे, पर जिन्ना ने यह नहीं सोचा था कि उनके दस वर्ष के हिंदू-मुस्लिम बटवारे के घातक अभियान ने देश के कई मुसलामानों की आँखों में यह असंभव सपना भी सजा दिया था कि देश के मुसलमानों के लिये एक अलग देश बनेगा जहाँ वे एक अलग समुदाय बन कर स्वतंत्रता से रह सकेंगे.
पंडित नेहरू के कंधों पर भारत में रह गए मुसलमानों की मनोग्रंथियों को सहलाने का अतिरिक्त बोझ भी आन पड़ा, जिन्हें जिन्ना यह कह कर भारत छोड़ गए थे कि अब इन तीन करोड़ मुसलमानों के पीछे हम छः करोड़ मुसलमानों का भविष्य अधर में कैसे लटका सकते हैं. पंडित नेहरु का मानना था कि मुसलमान कौम भी इसी देश का अभिन्न हिस्सा है, इस के लिये ज़रूरी है कि धर्म रूपी अफीम को ज़रा पिछली बेंच पर रखा जाए. नेहरू अर्धनास्तिक भी थे तथा कमोबेश सोवियत रूस की साम्यवादी धारा के पूजक भी, इसलिये यह भी स्वाभाविक था कि वे धर्म को किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला मानें. परन्तु उनकी इस सोच को चुनौती उस समय मिली जब देश के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद अचानक सोमनाथ मंदिर का उद्घाटन करने वेरावल (गुजरात) चले गए. तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की भी इसी बात पर पंडित नेहरू से ठन गई. बाबू राजेंद्र प्रसाद व सरदार वल्लभभाई पटेल प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष में यह साबित करने पर तुले हुए थे कि पंडित नेहरू देश की जनता की धार्मिकता की प्रगाढ़ता को नहीं पहचानते, जबकि नेहरू धार्मिकता की इसी प्रगाढ़ता को ही चुनौती के रूप में देख रहे थे. उन्हें लगता था कि यदि धर्म की चर्चा देश पर हावी हो गई तो हिंदू स्वर अधिक आक्रामक हो सकता है और मुसलमान कौम शायद अल्पसंख्यक होने की ग्रंथि से ग्रस्त हो कर इस देश में जीने लगे. इसलिए मुसलमान कौम के प्रति जितना प्रेम और सद्भावना रखी जाए, उतना अच्छा. पर पंडित नेहरू सरदार पटेल जैसे हिंदू राष्ट्रवादी नेताओं के सम्मुख अकेले पड़ गए और सरदार पटेल के समानांतर ही देश की हिंदू कौम की धार्मिकता के गूढ़े रंग को डॉ. श्यामाप्रसाद मुख़र्जी जैसे कट्टर हिंदुत्ववादी नेता और अधिक गूढ़ा करने की कोशिश करते रहे. सरदार पटेल व डॉ. मुख़र्जी अधिक समय तक न रहे पर जिस शख्सियत के कन्धों पर बैठ कर डॉ. मुख़र्जी ने ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना की, वे माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर देश की हिंदुत्ववादी ज़मीन पर सन् 1925 से ही डटे हुए थे. गुरु गोलवलकर ने तो अपने एक लेख में पुरुष-सूक्त के एक श्लोक का उद्धरण दे कर सहसा यह साबित कर के एक चमत्कार सा करने की कोशिश की थी कि उन्होंने भगवान की खोज कर ली है, और कि विश्व के हिंदू ही वास्तव में भगवान हैं. पुरुष सूक्त का संदर्भित श्लोक यही कहता है कि जिस तंत्र में ब्राह्मण सिर है, क्षत्रिय बाहु, वैश्य कटि तथा शूद्र पाँव, उसी तंत्र में जीने वाले लोग भगवान हैं. (सन्दर्भ – ‘बंच ऑफ थॉट्स’ एम. एस. गोलवलकर पृ. 36) और गुरूजी ने यह नायाब सा निष्कर्ष निकाल लिया कि हिंदू ही तो वास्तव में भगवान हुए! उनकी इस अनमोल दार्शनिक खोज को केवल उनकी ही दार्शनिक बाज़ीगरी माना जा सकता है. उन्होंने तो अपने उक्त लेख में यह भी कहा कि (स्वामी विवेकानंद आदि जैसी) जिन आध्यात्मिक विभूतियों ने मनुष्य को ही भगवान माना, उनका दर्शन किसी ने किसी विशेष बिंदु पर आ कर रुक गया! गुरु गोलवलकर द्वारा पोषित उग्र संस्था ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ इसीलिए अपने भीतर एक मिथ को लादे हुए जीती रही कि हम हिंदू ही इस देश के सच्चे वारिस है! और कि यह देश तो वास्तव में हिंदू-देश है. इस विचारधारा ने कम से कम राजनीतिक वातावरण में हिंदुओं को एक सशक्त वोट बैंक के रूप में स्थापित कर दिया. और एक दिन ऐसा भी आया कि नेहरू परिवार में से ही, गुरु गोलवलकर के इस अद्भुत दर्शन की शिकार हुई इंदिरा गाँधी! सत्ता छूट जाने के बाद जब सन् 80 में वे पुनः प्रधानमंत्री बनी तो उनके भीतर मानो आकाशवाणी सी हुई कि सत्ता के गलियारों में बने रहने की एक ही शर्त है, और वह है हिंदू शक्ति की पहचान रखना. उस समय संघ के तृतीय सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बालासाहेब देवरस ने आगे बढ़ कर इंदिरा गांधी का हाथ थाम लिया और उन के परम पूज्य शिक्षक मार्गदर्शक बन गए. देवरस आपातकाल में हुई जेल से छूटते ही और सभी स्वयंसेवकों को छुड़ाते ही दूरदर्शन पर आ गए और इंदिरा गाँधी के 20 सूत्रीय कार्यक्रम को तोते की तरह रटने लगे. पंडित नेहरू की सोच के कारण जिस कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगता रहा, वही कांग्रेस अब चोरी चोरी चुपके चुपके हिंदू तुष्टीकरण की राह पर चल पडी, बाला साहब देवरस की तर्जनी को कस कर थामे हुए. सन 84 का ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ शायद इसी का चरम था क्योंकि देवरस के लिए तो भिंडरांवाले इस हिंदू-राष्ट्र को विखंडित करने वाली एक शक्ति थे. तथा राजीव गाँधी को जब शाह बानू के मामले में मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे नाकों चने चबाने पड़े और हिंदू संस्थाएं उन पर फब्तियां कसने लगी तब उन्होंने ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के भूतल में बने राम मंदिर के ताले खुलवा दिए. धर्म की जिस अफीम से बचने के लिए पंडित नेहरु ने राम मंदिर के ताले बंद करवाए थे, उसी अफीम को राजीव गाँधी ने हिंदू वोटों के लोभ में आ कर हवा दी. अर्थात् इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी सत्ता लोलुपता में नेहरू की सोच से दूर छिटक गए. आज जब इन्टरनेट की वेबसाईट ‘विकीलीक्स’ ने राहुल गाँधी द्वारा अमरीकी राजदूत तिमोथी रोमर को दिए गए एक बयान का पर्दाफाश कर दिया है तो न जाने क्यों, राहुल गांधी के पीछे जो प्रकाशवृत्त सा नज़र आ रहा है, वह देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का ही लग रहा है, कम से कम उन लोगों को, जो किसी भी बात को गहराई तक पैठ कर देखना जानते हैं. ऐसा लग रहा है कि राहुल के भीतर से एक अन्य तरीके से या अन्य शब्दों में पंडित नेहरू का धर्म चिंतन बोल पड़ा है. राहुल को अपनी बात अमरीकी राजदूत से कहनी चाहिये थी या नहीं, इस बात पर विवाद हो सकता है. परन्तु उनका यह कहना कि देश के लिये हिंदू कट्टरवाद मुस्लिम कट्टरवाद से अधिक हानिकारक है, उक्तलिखित गहरे पैठ कर सोचने वाले लोगों को शायद अक्षरशः सत्य लगता हो. इंदिरा और राजीव के बाद देश आडवानी सरीखे नेताओं के अधीन भी आ गया था जो देश की अबोध जनता के सामने यह साबित करने पर तुले हुए थे कि वे ही सरदार पटेल हैं, वे ही लौह-पुरुष हैं. पर जिन्होंने सरदार पटेल के हिंदूवाद को आक्रामकता और आपराधिकता से ही अधिक बढ़ावा दिया, देश की राजनीतिक फलक पर उन के प्रासंगिक होते ही सहसा हिंदू मुस्लिम घृणा इस सीमा तक बढ़ गई कि दोनों कौमें एक दूसरे की जानी दुश्मन सी दिखने लगी. रथयात्रा और बाबरी विध्वंस के बाद सहसा लग रहा था कि एक और पाकिस्तान बन कर रहेगा. मुंबई में दो बार दंगे हुए और हिंदू कट्टरपंथी पार्टियों व संस्थाओं ने हिंदू-मुस्लिम घृणा को चरम तक पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसी कारण ‘काला शुक्रवार’ (Black Friday) हुआ, और शायद इसी कारण कतिपय मुस्लिम नौजवान दिग्भ्रमित हो कर लश्कर जैसी आतंक्वादी संस्थाओं की कठपुतलियां बनने लगे. सोमनाथ मंदिर को जिस हिंदू आस्था से जोड़ा जा रहा था, वह आस्था अब सहसा, सत्ता लोलुपता की अग्नि में तप कर, खूनी आस्था सी लगने लगी थी. राहुल इसी को बड़ा खतरा मानते हैं तो कुछ गलत नहीं कर रहे, क्योंकि जहाँ एक तरफ कतिपय मुस्लिम कट्टरपंथियों की कट्टरता अपने धर्मग्रन्थ को ले कर है, वहीं कट्टरपंथी हिंदुओं की कट्टरता इस देश को एक मिल्कियत के रूप में लेने से संबंधित है. पहली कट्टरता अंतर्मुखी है तो दूसरी बाह्यमुखी जिसमें हिंदू कट्टरपंथी स्वयं के अलावा किसी भी गैर हिंदू की उपस्थिति को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते हैं. जहाँ हिंदुओं में एक हस्ती होने की भावना पनपी है, वहीं देश के मुस्लिम अस्तित्व तक को नकारे जाने के पीड़ित लगते हैं. पंडित नेहरु धर्म में आस्था के वर्चस्व को दबाना चाहते थे तो राहुल सत्ता के नशे के खूनीपने की और संकेत कर रहे हैं, जिसे ऐसी आस्था जन्म देती है.
राहुल द्वारा संकेतित यह अधिक खतरनाक दौर सन् 2002 में उस समय चरम तक पहुंचा जब गुजरात में सब तरफ नफरत ही नफरत का लावा फूटने लगा था. अब भाजपा सत्ता में नहीं है पर न जाने कितने मामलों में हिंदू कट्टरपंथी नेता शक के घेरे में आ गए हैं, चाहे वह समझौता एक्सप्रेस बमकांड हो या अजमेर बम कांड. इन्द्रेश कुमार व मोहन भागवत जैसी हस्तियाँ भी शक के दायरे से बाहर नहीं रह सकी हैं. इस प्रकार यदि हम क्षण भर लौट कर पंडित नेहरू के ज़माने में जाएँ तो जिस मुसलमान कौम को पंडित नेहरू इसी देश का अभिन्न हिस्सा मान रहे थे, उसे हर बार हर मोड़ पर यह जताया जाता रहा है कि मुसलमान इस देश में अल्पसंख्यक हैं, वे अल्पसंख्यक बन कर ही रहें तो बेहतर! राहुल से पहले देश की राजनीतिक फलक पर सोनिया आई थी. पर उनके होते कांग्रेस में इतनी भर नैतिक शक्ति भी नहीं दिखी थी कि रामसेतु जैसे मुद्दों पर कोई वैज्ञानिक दृष्टि अपना पाए. राहुल अकेले ऐसे शख्स निकले जो पंडित नेहरू की तरह धर्म से संबंधित कोई बात दो टूक तरीके से कह सकें. बल्कि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि पंडित नेहरू ने तो अपना दर्शन उस समय प्रकट किया जब चारों तरफ से उनकी सत्ता को कोई चुनौती देने वाला था ही नहीं. राहुल अब ऐसे वातावरण में ऐसी दो टूक बाते कर रहे हैं जब हर तरफ प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक नेताओं की एक लंबी कतार सी बनी खड़ी है. किसी भी मुद्दे पर किसी भी क्षण कोई भी सरकार गिर सकती है. यदि देश के चंद मुट्ठी भर लोग भी राहुल की बात की आत्मा को पहचानते हैं तो कोई आश्चचर्य नहीं कि उन की सोच इस देश का राजनीतिक वातावरण बदल कर रख दे और उसे धर्म और जाति की राजनीति से दूर ले जा कर किसी वास्तविक व व्यावहारिक ज़मीन पर खड़ा कर दे, जहाँ सही सोच और सही कार्रवाई को प्राथमिकता मिले.