This is default featured slide 1 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 2 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 3 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 4 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

This is default featured slide 5 title

Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipisicing elit, sed do eiusmod tempor incididunt ut labore et dolore magna aliqua. Ut enim ad minim veniam, quis nostrud exercitation test link ullamco laboris nisi ut aliquip ex ea commodo consequat

Sunday, February 20, 2011

राहुल गांधी के डिंपल पर कुर्बान लोकतंत्र


  •  
  • मैंने पूछा, ‘आपको राहुल गांधी अच्छे लगते हैं?’ उसने कहा, ‘बेशक।’ मैंने पूछा, ‘राहुल गांधी की कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?’ उसने कहा, ‘राहुल का डिंपल! वह जब मुस्कुराता है तो उसका डिंपल बहुत अच्छा लगता है, मैं उसी की कायल हूं। बाकी नेता (उसने कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं के नाम लिए) तो जानवरों की तरह लगते हैं, पता नहीं क्यों लोग उन्हें वोट देते हैं!’ मैं चुप हो गया। जैसे एक झटके में मुझे परमज्ञान मिल गया। मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए। समझ आ गया कि हिंदुस्तान में महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी मुद्दे क्यों नहीं बन रहे हैं। उस दिन मुझे मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए। मैंने मन ही मन कहा, यह डिंपल डिमोक्रेसी तुम्हें मुबारक मेरे देश!
  • -
शिवेंद्र कुमार 'सुमन'
11 फरवरी, शुक्रवार की रात 9.30 बजे मैं टीवी देख रहा था। एकाएक सभी न्यूज़ चैनल्स पर ब्रेकिंग न्यूज़ आने लगी। मिस्र में राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक ने इस्तीफा दिया। 30 साल से शासन कर रहे इस तानाशाह ने जनता के विरोध के सामने घुटने टेक दिए। मिस्र की जनता के 18 दिन के संघर्ष की जीत हुई। तानाशाह को कुर्सी छोड़नी पड़ी। मुबारक कहां हैं, अभी कुछ पता नहीं, पर मिस्र की जनता ऐतिहासिक तहरीर चौक पर उत्सव मना रही है।

चैनल्स के सीनियर जर्नलिस्ट अपने-अपने ढंग से समीक्षा करने लगे। कुछ लोग आने वाले समय में भारत के साथ मिस्र के रिश्ते का आकलन करने लगे, कुछ मिस्र का भविष्य बताने लगे। तहरीर चौक पर मौजूद एक पत्रकार ने इस जनक्रांति की तुलना महाभारत से कर दी। कहा, 18 दिन महाभारत की लड़ाई चली थी और 18 दिन यह संघर्ष, सो दोनों एक है। फिर विषय बदल दिया।

मैं नहीं जानता कि भविष्य में मिस्र का क्या होगा। उम्मीद तो यही है कि जल्दी ही वहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव होंगे और जनता की चुनी हुई सरकार सत्ता में आएगी। लेकिन यह चुनी हुई सरकार क्या मिस्र में एक नया सूरज उगाएगी? क्या लोकतंत्र उनकी हर बीमारी का इलाज कर देगा? अगर हां तो हमारे यहां तो पिछले करीब 60 साल से लोकतंत्र है, क्या हमारी सारी समस्याएं खत्म हो गईं?


अगर आप देखें तो तानाशाही के तहत मिस्र की जो हालत थी, उससे ज्यादा बुरी अवस्था लोकतंत्र के तहत हमारे देश में है। मिस्र में बेरोजगारी, गरीबी, अक्षम प्रशासन, करप्शन और परिवारवाद के खिलाफ जनता सड़कों पर उतरी और एक तानाशाह को सत्ता छोड़नी पड़ी। हमारे देश में भी तो ये सब समस्याएं मौजूद हैं, पर जनक्रांति तो दूर,  एक लाख लोग भी इनके खिलाफ सड़कों पर नहीं उतरते, जबकि हमारी आबादी 1.2 अरब के पास है।

देश में महंगाई अपने चरम पर है, पर इसके खिलाफ जनता सड़कों पर नहीं उतर रही। कोई विरोध नहीं। बहुत हुआ तो कुछ लोग कुछेक नेताओं को कोस कर फिर अपने काम में लग जाते हैं। बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है, पर यह मुद्दा नहीं है। अभी हाल ही में बरेली में फोर्थ ग्रेड में कुछ सौ पदों पर बहाली के लिए लाखों की संख्या में युवक पहुंचे, नौकरी तो दूर, दर्ज़नों युवकों को अपनी जान गंवानी पड़ी। लेकिन हमारे यहां यह मुद्दा नहीं बना। यह दुखद हादसा सिर्फ अखबारों और न्यूज़ चैनलों के लिए एक सामान्य खबर बना। कभी-कभी बड़ा अजीब लगता है। हमारे यहां लोग धर्म के नाम पर हिंसा करने के लिए तुरंत सड़कों पर उतर जाते हैं। जाति के नाम पर खून बहाने के लिए हर पल तैयार हैं। जातीय आरक्षण के लिए सड़कें और रेल सेवाएं बाधित कर देते हैं। लेकिन महंगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी, गरीबी, करप्शन, अक्षम प्रशासन के खिलाफ सड़कों पर नहीं उतरते।

कुछ दिन पहले एक छोटे से देश ट्यूनिशिया में एक ठेलेवाले ने आत्महत्या क्या कर ली, पूरे क्षेत्र में भ्रष्ट शासन के खिलाफ आंदोलन खड़ा हो गया। एक-एक कर भ्रष्ट शासन दम तोड़ते नजर आ रहे हैं। हमारे यहां तो इस तरह के आत्मदाह रोज़ होते हैं, पर कुछ होता क्यों नहीं? अभी कुछ दिनों पहले 26/11 के शहीद संदीप उन्नीकृष्णन के चाचा ने सिस्टम से तंग आकर राष्ट्रपति भवन के सामने विजय चौक पर खुद को जलाकर मार डाला, लेकिन हमारे लोगों की सोई आत्मा नहीं जागी। यहां तो हर साल सैकड़ों किसान भ्रष्ट सिस्टम के चंगुल में फंसकर खुदकुशी करते हैं, पर किसी को भी कुछ नहीं होता। यहां तक कि मीडिया में भी उन बेचारे कमज़ोर लोगों को जगह नहीं मिल पाती। आखिर क्यों? क्या हमारी आत्मा मर चुकी है या फिर भ्रष्ट लोकतंत्र की गुलाम हो गई है?

आखिर हमारी जनता को गुस्सा क्यों नहीं आता? मुझे लगता है, गुस्सा तो आता है लेकिन हमने लोकतंत्र के इस प्रेशर कुकर में गुस्सा निकालने के लिए चुनाव के रूप में सीटी और सेफटी वॉल्व की जो जगह बना रखी है, उसके कारण यह गुस्सा एकाएक नहीं फूटता। वह अगले चुनाव का इंतज़ार करता है और उस समय प्रेशर कुकर की सीटी से भाप की तरह निकल जाता है। फिर नई सरकार आती है। वह भी वही सब करती है। और हम फिर अगले चुनावों का इंतज़ार करते हैं।

60 सालों के अनुभव से यही लगता है कि हमारे यहां गरीबों के लिए स्वास्थ्य सेवा नहीं हो, रोज़गार के अवसर नहीं, खाने को अन्न नहीं, ईमानदारी नहीं हो, सस्ते सामान नहीं हो, सब चलेगा। यह सब इसलिए चलेगा क्योंकि हमारे यहां लोकतंत्र है, जिसकी मलाई कुछ खास तबके को लोग खा रहे हैं। इस तबके को इस सिस्टम से फायदा ही फायदा है। वे जो चाहें, कर लेते हैं और हम वोट के नाम का झुनझुना हर पांच साल में बजा लेते हैं। सच्चाई तो यह है कि हम इस वोट से जिसको भी चुन कर लाएंगे, यह तबका उन्हें अपना दोस्त बना लेगा। 2जी स्कैम में आपने देखा, जिन लोगों की यूपीए सरकार ने मदद की, उनकी एनडीए ने भी अपने समय में मदद की थी। कल लो, क्या कर लोगे?

जाते-जाते एक आखिरी बात। हमारे लोकतंत्र की खामी के लिए यहां के गरीब, अनपढ़ लोगों को भी दोषी ठहराया जाता है। कहा जाता है कि गांवों में गरीब अनपढ़ लोग जाति या धर्म के नाम पर या फिर पैसे लेकर या ताकतवर लोगों के दबाव में आकर अपना वोट दे देते हैं जिससे गलत तरह के लोग संसद और विधानसभाओं में आ जाते हैं। इसका निहितार्थ यह कि अगर सभी पढ़े-लिखे होते या फिर केवल पढ़े-लिखों को वोट देने का अधिकार होता तो शायद हालात बेहतर होते। इसी सिलसिले में मैं आपको एक निजी लेकिन बिल्कुल सच्चा किस्सा सुनाता हूं।

बात 2009 में हुए आम चुनाव की है। दिल्ली में वोटिंग हो गई थी। वोटिंग के दो-तीन बाद मैं ऑफिस कैंटीन में खाना खा रहा था। मेरी बगल में टाइम्स ऑफ इंडिया की एक महिला पत्रकार खाना खाने आई।

चुनाव का सीज़न था तो उसी की चर्चा चल पड़ी। उसने मुझसे पूछा, ‘आपने वोट दिया?’ मैंने सर हिलाते हुए कहा, ‘नहीं।’ वह चौंकी। थोड़ी तेज़ आवाज़ में पूछा, ‘क्यों?’ मेरा उत्तर था कि मेरे पास वोटर कार्ड नहीं है। उसने मुझे हिकारत भरी नज़रों से देखते हुए कहा, ‘गज़ब हैं आप! एक जर्नलिस्ट होकर वोटर कार्ड नहीं बनवा सकते?’ मैंने कहा, ‘2 बार कोशिश की थी, पर बन नहीं पाया। वे जो डॉक्युमेंट्स मांगते हैं, वे मेरे पास हैं ही नहीं।’ फिर वह चुपचाप खाना खाने लगी। मुझे लगा, मुझे भी उनसे कुछ बात करनी चाहिए।

मैंने पूछा, ‘आपने वोट दिया?’ उसने चहकते हुए कहा, ‘हां’ और फिर स्याही लगी हई अपनी उंगली दिखाते हुए बोली, ‘यह देखिए।’ मैंने कहा, ‘गुड।’ वह ऐसे मुस्कुराईं जैसे उसने बहुत बड़ा मैदान मार लिया हो और कोई डरपोक व्यक्ति उनके सामने खड़ा हो जो मैदान में उतरा ही न हो। इससे आगे मुझे और नहीं पूछना चाहिए था, लेकिन मन माना नहीं और मैंने फिर एक निजी सवाल दाग दिया। ‘किसको वोट दिया आपने?’ चहकते हुए बोली, ‘मैं नहीं बताऊंगी।’ फिर कुछ देर बाद खुद बोली, ‘कांग्रेस को।’ मैंने फिर सवाल दागा, ‘क्यों?’ उसका जवाब था, ‘कांग्रेस में राहुल गांधी जो हैं, इसलिए।’

मैंने पूछा, ‘आपको राहुल गांधी अच्छे लगते हैं?’ उसने कहा, ‘बेशक।’ मैंने पूछा, ‘राहुल गांधी की कौन सी बात आपको अच्छी लगती है?’ उसने कहा, ‘राहुल का डिंपल! वह जब मुस्कुराता है तो उसका डिंपल बहुत अच्छा लगता है, मैं उसी की कायल हूं। बाकी नेता (उसने कुछ क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं के नाम लिए) तो जानवरों की तरह लगते हैं, पता नहीं क्यों लोग उन्हें वोट देते हैं!’ मैं चुप हो गया। जैसे एक झटके में मुझे परमज्ञान मिल गया। मेरे ज्ञान चक्षु खुल गए। समझ आ गया कि हिंदुस्तान में महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी मुद्दे क्यों नहीं बन रहे हैं। उस दिन मुझे मेरे सारे सवालों के जवाब मिल गए। मैंने मन ही मन कहा, यह डिंपल डिमोक्रेसी तुम्हें मुबारक मेरे देश!

मेरा मानना है कि आपको जिस तंत्र में भोजन नहीं मिले, रहने को घर नहीं मिले, रोज़गार नहीं मिले, सुरक्षा नहीं मिले, इलाज की उचित सुविधा नहीं मिले, उस तंत्र को या तो उखाड़ फेंकना चाहिए या फिर जब तक वह तंत्र यह सब बुनियाद सुविधाएं उपलब्ध नहीं कराए, उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए। लेकिन इस लोकतंत्र को उखाड़ कर हम कौनसा तंत्र लाएंगे? कोई ऐसा तंत्र जो सबका हित साधे.

लेखक शिवेंद्र नवभारतटाइम्स.कॉम में काम करते हैं। अपनी बात बेझिझक कहते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि जिंदगी का कोई गणित नहीं होता। जन्मभूमि छपरा रही। रोजी-रोटी की तलाश में वाया पटना दिल्ली पहुंचे हैं। अब इनके विचार ब्लॉग्स के माध्यम से आपके सामने आएंगे।