लेकिन एन.ए.सी और सरकार के बीच इस तकरार और टकराव में कितनी हकीकत है और कितना फ़साना? हालांकि इस तकरार में कोई नई बात नहीं है. पहले भी खासकर यू.पी.ए-एक के कार्यकाल में विभिन्न मुद्दों पर सरकार और एन.ए.सी के बीच तकरार और खींचतान चलती रही है. लेकिन पहले के उस तकरार में दिखावा ज्यादा और वास्तविकता कम थी.
वह वास्तव में, एक तरह की मिली-जुली कुश्ती ज्यादा थी जिसका मकसद न सिर्फ विपक्ष का स्पेस भी अपने पास रखना था बल्कि यू.पी.ए सरकार पर कांग्रेस अध्यक्ष के प्राधिकार को स्थापित करना और सरकार के कुछ अच्छे फैसलों और कदमों की क्रेडिट उन्हें देनी थी. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए के पिछले कार्यकाल में यह रणनीति काफी कारगर रही.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह मूलतः अभी भी नूराकुश्ती ही है. खाद्य सुरक्षा से लेकर मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी देने तक जैसे टकराव के कई मुद्दों पर बुनियादी रूप से एन.ए.सी के इक्का-दुक्का सदस्यों को छोड़कर बहुमत सदस्यों और मनमोहन सिंह सरकार की राय में कोई बड़ा फर्क नहीं है. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि यह पहलेवाली नूराकुश्ती से कई मायनों में अलग भी है.
असल में, इस टकराव और तकरार के पीछे कई कारण हैं. सबसे महत्वपूर्ण कारण यह लगता है कि कांग्रेस का एक बड़ा हिस्सा गंभीरता से मनमोहन सिंह से पीछा छुड़ाना चाहता है. पिछले कुछ महीनों में एक के बाद एक भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मामलों ने इस सरकार की जो भी थोड़ी-बहुत चमक और साख थी, उसे उतार दिया है. इन मामलों में सरकार के साथ-साथ कांग्रेस की भी खूब भद पिटी है.
कांग्रेस के इस हिस्से को खुद सोनिया गांधी का भी आशीर्वाद हासिल है. लेकिन वह खुलकर सामने नहीं आना चाहती हैं. आखिर सत्ता की मलाई को कौन छोड़ना चाहता है? लेकिन वह यह भी चाहती हैं कि माखनचोर का इल्जाम उनपर न लगे. कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल यह भी है कि वह प्रधानमंत्री पद से मनमोहन सिंह को इतनी आसानी से हटा भी नहीं सकती है.
२००९ के चुनावों में जीत का श्रेय कुछ हद तक मनमोहन सिंह और उनकी छवि को भी दिया गया था. यह भी सही है कि २००९ के बाद कई मामलों में प्रधानमंत्री के बतौर वे अपने प्राधिकार को इस्तेमाल करके नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की कोशिश करते भी दिख रहे हैं. इससे भी पार्टी और एन.ए.सी के सदस्यों के साथ तकरार को बढ़ावा मिल रहा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी भी इस मौके का इस्तेमाल करके कई रुके हुए आर्थिक सुधारों के फैसलों पर आगे बढ़ने का दबाव बनाए हुए है. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए-दो सरकार ने शुरुआत में नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने की दिशा में ही कदम उठाये जिसका सबसे बड़ा सबूत २००९ और उसके बाद २०१० के आम बजट हैं.
यही नहीं, गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने भी प्रधानमंत्री के समर्थन से सुधारों की राह में रोड़ा बन रहे माओवादियों को नेस्तनाबूद करने के लिए बहुत जोरशोर से आपरेशन ग्रीन हंट शुरू कर दिया. उधर, मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल जैसे कई अति उत्साही मंत्री सुधारों को तेज करने के अभियान उतर पड़े.
इसी बीच, नई सरकार के कई सुधार समर्थक मंत्रियों के कुछ कारपोरेट समूहों के लिए खुले पक्षपात और उन्हें जमकर रेवडियाँ बांटने से नाराज कारपोरेट समूहों में भी बेचैनी बढ़ रही थी. नतीजा, जल्दी ही टेलीकाम से लेकर सी.डब्ल्यू.जी तक एक के बाद एक घोटाले सामने आने लगे और पूरी मनमोहन सिंह सरकार अंदर और बाहर से हमलों से घिर गई.
यही नहीं, सरकार एक बड़े कारपोरेट युद्ध में भी फंस गई. ऐसा लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था. यही समय था जब कांग्रेस के एक हिस्से ने भी सोनिया गांधी की मौन सहमति के साथ सरकार से दूरी बढ़ाने की रणनीति पर अमल शुरू कर दिया. यहां तक कि सरकार और सुधारों के प्रति खुद युवराज राहुल गांधी के सुर भी थोड़े अलग और बदले हुए लगने लगे.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि राहुल गांधी को राजनीतिक रूप से तैयार कर रहे और उनकी छवि गढ़ने में जुटे रणनीतिकारों की रणनीति भी यही है कि राहुल की एक गरीब समर्थक छवि गढ़ने के लिए जरूरी है कि उन्हें सरकार की छवि खासकर उन फैसलों से अलग रखा जाए जिनको लेकर विवाद और जन विरोध हो.
दूसरा, इससे राजनीतिक एजेंडा बदलने में भी मदद मिलेगी. भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर फंसी सरकार और कांग्रेस पार्टी हर कोशिश कर रहे हैं कि मुद्दा बदले. उन्हें लगता है कि अगर एन.ए.सी द्वारा उठाये गए मुद्दों पर चर्चा होगी तो कांग्रेस नेतृत्व को अपनी छवि चमकाने में मदद मिलेगी.
लेकिन एन.ए.सी के सुझावों पर जारी इस तकरार का एक लाभ सरकार को भी है. यह किसी से छुपा नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार खासकर उसके नव उदारवादी सुधार समर्थक खाद्य सुरक्षा आदि मुद्दों पर एन.ए.सी के प्रस्तावों को लेकर उत्साहित नहीं है. हालांकि सरकार और सुधार समर्थक लाबी को खुश करने के लिए एन.ए.सी ने खाद्य सुरक्षा के प्रावधानों को बहुत कमजोर कर दिया है.
ध्यान रहे कि कांग्रेस और यू.पी.ए ने २००९ के चुनावों में खाद्य सुरक्षा का कानूनी अधिकार देने का वायदा किया था. लेकिन पौने दो साल गुजरने के बावजूद सरकार और एन.ए.सी के बीच अभी भी उसके मसौदे पर बहस चल रही है. साफ है कि यह इसे जब तक संभव हो सके टालने की रणनीति है. कहने की जरूरत नहीं है कि परोक्ष रूप से कांग्रेस अध्यक्ष भी इस खेल में शामिल हैं.
यह तथ्य किसी से छुपा नहीं है कि जब भी कांग्रेस अध्यक्ष ने किसी भी मुद्दे पर स्टैंड लिया, सरकार को झुकते देर नहीं लगी है. सवाल है कि अगर सोनिया गांधी की इन मुद्दों के प्रति इतनी प्रतिबद्धता है तो वे साफ स्टैंड लेकर सरकार पर दबाव क्यों नहीं डालती हैं? वे अगर चाहें तो इन सुझावों पर दाएं-बाएं कर रही सरकार तुरंत सीधे रास्ते पर आ सकती है.
जबकि ऐसे मुद्दों में विवाद की कोई खास गुंजाइश नहीं है. यह भी एक सोची-समझी रणनीति है. असल में, किसी मुद्दे को विवादस्पद बना देने का फायदा यह है कि इससे उस मुद्दे के प्रति न सिर्फ लोगों में भ्रम, संशय और संदेह पैदा हो जाते हैं बल्कि जनमत भी प्रभावित होता है.
इस मामले में भी यही हो रहा है. उदाहरण के लिए, खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर एन.ए.सी और प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त रंगराजन समिति के बीच मतभेद और टकराव के कारण खाद्य सुरक्षा को लेकर मध्य वर्ग और लोगों में यह भ्रम और संशय बढ़ रहा है कि इसे एन.ए.सी के कहे मुताबिक लागू करना संभव नहीं है और न ही यह वांछनीय है.
ऐसे में, अगर एन.ए.सी और खाद्य सुरक्षा के अधिकार के लिए लड़नेवाले संगठन इस मुद्दे पर अड़ते हैं तो सरकार को यह प्रचार करने का मौका मिल जायेगा कि इन संगठनों के अड़ियल रूख के कारण खाद्य सुरक्षा के कानून को लागू करने में कठिनाई आ रही है.
यह और बात है कि इस मुद्दे पर सरकार का रवैया सबसे अधिक अड़ियल है. लेकिन इस पूरे विवाद के कारण सरकार को न सिर्फ इस अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दे को और हल्का और कमजोर करने का तर्क और मौका मिल रहा है बल्कि एन.ए.सी के भी पीछे हटने की जमीन तैयार हो रही है. असल में, जब भी किसी मुद्दे पर विवाद बढ़ता है तो बीच का रास्ता लेने का माहौल बनने लगता है. कई बार विवाद इसी उद्देश्य से खड़े भी किए जाते हैं.
यह बात और है कि इस समझौते में खाद्य सुरक्षा का कानून न सिर्फ और पिलपिला, बेमानी और नई बोतल में पुरानी शराब होकर रह जायेगा. लेकिन नूराकुश्ती का नतीजा और हो भी क्या सकता है?