वामपंथियों की ओर से अपने हित के लिए समय-समय पर शिक्षा व्यवस्था के साथ किए जाने वाले परिवर्तनों पर, तथाकथित सेक्युलर जमात गुड़ खाए बैठी रहती है। उन्हें शिक्षा का यह वामपंथीकरण नजर नहीं आता। वे तो रंगे सियारों की तरह तब ही आसमान की ओर मुंह कर हुआं...हुआं... चिल्लाते हैं जब किसी भाजपा सरकार की ओर से शिक्षा व्यवस्था में बदलाव किया जाता है। तब तो सब झुंड बनाकर भगवाकरण-भगवाकरण जपने लगते हैं। सेक्युलर जमातों की यह नीयत समझ से परे है। खैर, वामपंथियों को तो वैसे भी महात्मा गांधी से बैर है। क्योंकि, गांधी क्रांति की बात तो करते हैं, लेकिन उसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं। वहीं वामपंथियों की क्रांति बिना रक्त के संभव ही नहीं। गांधी इस वीर प्रसूता भारती के सुत हैं, जबकि कम्युनिस्टों के, इस देश के लोग आदर्श हो ही नहीं सकते। गांधीजी भारतीय जीवन पद्धति को श्रेष्ठ मानते हैं, जबकि वामपंथी कहते हैं कि भारतीयों को जीना आता ही नहीं। गांधीजी सब धर्मों का सम्मान करते हैं और हिन्दू धर्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित करते हैं, जबकि कम्युस्टिों के मुताबिक दुनिया में हिन्दू धर्म में ही सारी बुराइयां विद्यमान हैं। वामपंथियों का महात्मा गांधी सहित इस देश के आदर्शों के प्रति कितना 'सम्मान' है यह १९४० में सबके सामने आया। १९४० में वामपंथियों ने अंग्रेजों का भरपूर साथ दिया। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन का सूत्रपात किया। उस समय कुटिल वामपंथियों ने भारत छोड़ो आंदोलन के विरुद्ध खूब षड्यंत्र किए। गांधी और भारत के प्रति द्वेष रखने वाले वामपंथी देश के बच्चों को क्यों महात्मा को पढऩे देना चाहेंगे।
शिक्षा बदल दो तो आने वाली नस्ल स्वत: ही जैसी चाहते हैं वैसी हो जाएगी। इस नियम का फायदा वामपंथियों ने सबसे अधिक उठाया। बावजूद वे उतने सफल नहीं हो पाए। इसे भारत की माटी की ताकत माना जाएगा। तमाम प्रयास के बाद भी उसके बेटों को पूरी तरह भारत विमुख कभी नहीं किया जा सका है। वैसे वामपंथी भारत की शिक्षा व्यवस्था में बहुत पहले से सेंध लगाने में लगे हुए हैं। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के प्रकल्प के तहत दस खण्डों के 'स्वाधीनता की ओर' ग्रंथ का प्रकाशन करवाया गया। इसे तैयार करने में अधिकांशत: कम्युनिस्ट टोली लगाई गई। अब ये क्या और कैसा भारत का इतिहास लिखते हैं इसे सहज समझा जा सकता है। इस ग्रंथ में १९४३-४४ तक के कालखण्ड में महात्मा गांधी जी के बारे में केवल ४२ दस्तावेज हैं, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सैकड़ों। ऐसा क्यों? क्या कम्युनिस्ट पार्टी इस देश के लिए महात्मा गांधी से अधिक महत्व रखती है? क्या कम्युनिस्ट पार्टी का स्वाधीनता संग्राम में गांधी से अधिक योगदान है? भारतीय इतिहास के पन्नों से हकीकत कुछ और ही बयां होती है। इतिहास कहता है कि १९४३-४४ में भारत के कम्युनिस्ट अंग्रेजों के पिट्ठू बन गए थे। इसी ग्रंथ में विश्लेषण के दौरान गांधी जी को पूंजीवादी, शोषक वर्ग के प्रवक्ता, बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि, प्रतिक्रियावाद का संरक्षक आदि कहकर गालियां दी गईं। यह है कम्युनिस्टों का चेहरा। यह है गांधीजी के प्रति उनका द्वेष।
स्वतंत्रता पूर्व से ही वामपंथियों ने बौद्धिक संस्थानों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। इसका असर यह हुआ कि तब से ही शिक्षा-साहित्य में भारतीयता के पक्ष की उपेक्षा की जाने लगी थी। जयशंकर को दरकिनार किया, उनकी जगह दूसरे लोगों को महत्व दिया जाने लगा। कारण, जयशंकर भारतीय संस्कृति के पक्ष में और उसे आधार बनाकर लिखते थे। ऐसे में उन्हें आगे कैसे आने दिया जाता। वहीं प्रेमचंद की भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत रचनाओं को कचरा बताकर पाठ्यक्रमों से हटवाया गया। उनके 'रंगभूमि' उपन्यास की उपेक्षा की गई। क्योंकि, रंगभूमि का नायक 'गांधीवादी' और भारतीय चिंतन का प्रतिनिधित्व करता है। निराला की वे रचनाएं जो भारतीय मानस के अनुकूल थीं यथा 'तुलसीदास' और 'राम की शक्तिपूजा' आदि की उपेक्षा की गई। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं।
आजादी के बाद इन्होंने तमाम विरोधों के बाद भी मनवांछित बदलाव शिक्षा व्यवस्था में किए। महान प्रगतिशीलों ने 'ग' से 'गणेश' की जगह 'ग' से 'गधा' तक पढ़वाया। केरल में तो उच्च शिक्षा का पूरी तरह वामपंथीकरण कर दिया है। वहां राजनीति, विज्ञान और इतिहास में राष्ट्रभक्त नेताओं और विचारकों का नामोनिशान ही नहीं है। केरल के उच्च शिक्षित यह जान ही नहीं सकते कि विश्व को शांति का मंत्र देने वाले महात्मा गांधी और अयांकलि के समाज सुधारक श्रीनारायण गुरु सहित अन्य विचारक कौन थे। इनके अध्याय वहां के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं हैं। ये यह भी नहीं जान सकते कि भारत ने आजादी के लिए कितने बलिदान दिए हैं, क्योंकि स्वतंत्रता आंदोलन का तो जिक्र ही नहीं है, जबकि माक्र्सवादी संघर्ष से किताबें भरी पड़ी हैं।